रात में भी लोगों में रहने लगा है अब,
लकड़-सुँघवा का डर ।
(तपती दुपहरी में लकड़ी सुँघा कर बच्चे को बेहोश करके बोरे में भरकर ले जाने वाला ।)
:
लू के मौसम में,
जब सुबह का स्कूल होता है,
दोपहर को माँ अपने बच्चे से कहती है,
“सो जा बेटा, नहीं तो लकड़-सुँघवा आ जाएगा” ।
“माँ, लकड़-सुँघवा को पुलिस क्यों नहीं पकड़ लेती ?”
“बेटा, वह पुलिस को तनख़्वाह देता है” ।
शाम को जब बच्चा सो कर उठता,
तो मान लेता है कि लकड़-सुँघवा आया
और बिना बच्चा चुराए चला गया ।
पर एक रोज़ बस्ती में सचमुच आ गया लकड़-सुँघवा । पर रात में ।
पूरनमासी की रात थी, पत्तों की खड़-खड़ पर कुत्तें भौंक रहे थे ।
बिल्ली सा वह आया दबे पाँव ।
सोए हुए लोगों की छाती में समा गई उसकी लकड़ी की महक ।
जो भाग सके वे अँधे, बहरे, लूले, लंगड़े हो गए,
लेकिन ज़्यादातर नींद में ही सोए रह गए ।
और धीरे-धीरे जमने लगी धूल बस्ती पर ।
जैसे जमती है धूल यादों पर, अदालत की फ़ाईलों पर,
पुलिस थाने की शिकायत-पुस्तिका पर ।
एक दिन धूल जमी बस्ती, मिट्टी में दब गई गहरी ।
समतल सपाट मैदान ही केवल उसका गवाह था ।
:
ज़मीन के अन्दर दबी बस्ती उभर आई अचानक ।
जैसे पुराना कोई दर्द उखड़ आया हो ठंड के मौसम में ।
पचीस सालों की खुदाई के बाद निकले कुछ खंडहर, कंकाल, साँप, बिच्छू ।
कंकालों ने तत्काल खोल दीं आँखें,
खुदाई करने वाले सिहर उठे और फिर से उन पर मिट्टी डाल दी ।
पुरातत्ववेत्ताओं ने दुनिया को बताया,
कि बस्ती प्राकृतिक आपदा से दब गई थी नीचे ।
अब किसको इसकी सज़ा दें और किसको पकड़ें धरें ।
इतिहास लिखने वालों ने अंततः वही लिखा,
जो पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया ।
खुदाई पूरी होने के इंतज़ार में खड़े लोग,
खड़े रह गए ।
उन्होंने उतरना चाहा हालाँकि अन्दर,
कि तभी शोर उठा,
लकड़-सुँघवा आया, लकड़-सुँघवा आया !!!!
लकड़-सुँघवा आया, लकड़-सुँघवा आया !!!!