Last modified on 1 जनवरी 2012, at 06:53

खिड़की / मुकुल दाहाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:53, 1 जनवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=मुकुल दाहाल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} [[Category:...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: मुकुल दाहाल  » खिड़की

किए कई यत्न कि बंद रख सकूँ, पर खिड़की मेरे कमरे की नहीं होगी बंद
लगता है कभी-कभी
कि ये बंद भी रहे
पर भर जाता हूँ आनंद से खुलती है जब ।
प्रत्येक क्षण हवा के साथ चले आते हैं स्मृतियों के झोंके
और खुल जाती है खिड़की सदा खुली रहने के लिए ।
जब भी करता हूँ इसे बंद, नरम हाथ घास के
आते हैं नाचते हुए खेतों की हवा के साथ, खोलते हैं इसे आहिस्ता ।

अगर करता हूँ इसे अभी बँद
चली आएगी कहीं से नदी किलोल करती
और अपने बहते हाथों से खोल देगी खिड़कियाँ बंद
छोड़ देगी खुला रहने के लिए ।

रेत के किनारों और तलछट से आते हैं
भीगे और सूखे बिल्लौरी कंकड़
यहीं इसी खिड़की से भीतर आते बिखर जाते हैं मेरे कमरे के फर्श पर
तब छोड़कर रोज़मर्रा के काम औचक खेलता हूँ इनसे ।

जब भी करूँगा इसे बंद
चला आएगा खेत की कूबड़ पीठ पर तना आम का वही पेड़
खोलेगा इसे
तूफानी हवाएँ झकझोर देंगी टहनियाँ
और झड़ जाएँगे पत्ते अनायास कमरे में इधर-उधर ।
इन पत्तों से आती है गंध मेरे बचपन की
और बैठ जाता हूँ खेलने छोड़कर सभी काज

इसी खुली खिड़की से
देखता हूँ झूलता क्षितिज चावल की चक्की पर
वहाँ से सविराम आती हैं चक्की की आवाजें, गूँजती हुई
ढोल और धमाल के साथ घुलती
और करती हैं ज़िन्दा मेरी दादी की आवाज़ों को
वे कपड़े जो घर के पीछे धोकर सुखाए थे उन्होंने
रस्सी पर सरसरा रहे हैं हवा के साथ

अगर करता हूँ बँद
तो खोल देते हैं इसे
धूल के वे नन्हे हाथ जो उठते हैं कभी
घर लौटते मवेशियों के खुरों से

कितना करता हूँ यत्न कि रह जाए ये बँद
तब चला आता है हठात
समय का पड़ौसी गाँव से कोई
और खोल देता है इसे ।
क्या करूँ !
बहुत यत्न के बाद भी
अकसर खुली रहती है मेरे घर की ये खिड़की ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अपर्णा मनोज