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कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम / निर्मला पुतुल

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तुम्हारे पास थोड़ा-सा वक़्त है.....
अगर नहीं तो निकालो थोड़ी फ़ुर्सत
याद करो अपने उन तमाम पत्रों को
जिससे बहुत कुछ बचाने की बात करते रहे हो तुम

बताओ दिल पर हाथ रखकर सच-सच
तुमने क्या-क्या बचाया अपने भीतर
संकट के इस दौर में....
बचा सके मेरा विश्वास
मेरी तस्वीर, मेरे ख़त, मेरी स्मृतियाँ
मेरी रींग, मेरी डायरी, मेरे गीत
मेरा प्यार, मेरा सम्मान, मेरी इज्ज़त
मेरा नाम, मेरी शोहरत, मेरी प्रतिष्ठा ?
निभा सके अपना वचन, अपनी क़समें
लड़ सके अपने अस्तित्व और इज्ज़त के लिए
अपने वादे, अपने विश्वास की रक्षा के लिए
लड़ सके वहाँ-वहाँ उससे
जहाँ-जहाँ जिससे
लड़ने की ज़रूरत थी
कर सके विरोध
जहाँ विरोध की पूरी संभावना थी ?

माँगा है कभी तुमने अपने आपसे उसका जवाब
सवाल करते रहे हो तुम एक पुरूष होकर, हज़ारों पुरूषों से.
आलिंगन, स्पर्श, चुंबन बचा सके तुम
जिसके दूर-दूर तक बचे रहने की कोई उम्मीद नहीं
ओैर न ही विश्वास दिलाने को पुख्ता सबूत ?

बचा पाए अपने भीतर, थोड़ी सी पवित्र जगह
जहाँ पुनर्स्थापित कर सको अपनी खोई देवी को ?

अभी-अभी यह सब पढ़ते
किसी चील के झपटदार चंगुल से
बचा सकोगे इसे
जिसके एक-एक शब्द
ख़ून, आँसू, नफ़रत और प्रेम के
गाढ़े घोल में डूबी है ।

कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम
और तो और तन-मन भी बचा नहीं सके तुम
जिस पर थोड़ा-सा भी गर्व करके
ख़ुद को कर सकूँ तैयार
तुम्हारी वापसी पर....