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विदेशिनी-6 / कुमार अनुपम

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छतें दहल जाती हैं
हिल जाती है ज़मीन
भीत देर तक थरथराती रहती है
कपड़े पसारने के लिए ताने गए
तार की तरह झनझनाती हुई

जब गुज़रते हैं उनके
उजड्ड अतृप्तियों के विमान
हमारे ऊपर से
हमारी हड्डियों में भर जाती है आँधी
सीटियाँ बजने लगती हैं

उन्हें नक़्क़ाशियाँ पसन्द हैं
उन्हेम फूल पसन्द हैं
वो दुबली-पतली चक्करदार गलियाँ
जिनमें
क़स्बे के बहुत से घरों की
भरी रहती हैं साँसें और राज़
जिनके बीचोबीच से होकर गुज़रती हैं
स्कार्फ़ बाँधे नन्हीं-नन्हीं बच्चियाँ
खिलखिलाती स्कूल जाती हुईं
उन्हें ये सब बेहद पसन्द है

जिन्हें वे पसन्द करते हैं
उन सब पर
वे बम बरसा देते हैं
वे उन्हें नष्ट कर देना चाहते हैं
कि उन सबको
कोई और पसन्द न कर सके
उन्हें ऐसा डर लगा ही रहता है

आख़िर
उनकी पसन्द का एक मतलब जो है

विदेशिनी,
इस तरह तो
मुझे मत पसन्द करना !