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ये ज़िंदगी / निदा फ़ाज़ली

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ये ज़िन्दगी

आज जो तुम्हारे

बदन कि छोटी-बड़ी नसों में

मचल रही है

तुम्हारे पैरों से

चल रही है

तुम्हारी आवाज़ में गले से

निकल रही है

तुम्हारे लफ़्ज़ों में

ढल रही है |


ये ज़िन्दगी.....!

जाने कितनी सदियों से

यूँ ही शक्लें

बदल रही है |


बदलती शक्लों

बदलते ज़िस्मों में

चलता फिरता ये इक शरारा

जो इस घडी

नाम है तुम्हारा !


इसी से साड़ी चहल-पहल है |

इसी से

रौशन है हर नज़ारा


सितारे तोड़ो

या घर बसाओ

अलम* उठाओ

या सर झुकाव


तुम्हारी आँखों कि रौशनी तक

है खेल सारा

ये खेल होगा नहीं दोबारा |



  • जंग का निशान