Last modified on 20 जनवरी 2012, at 15:12

चीटियाँ-2 / अजेय

अजेय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:12, 20 जनवरी 2012 का अवतरण ('<poem> == ''जहाँ कुछ मीठा गिर कर छूट गया हो'' == घर के किसी न क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

== जहाँ कुछ मीठा गिर कर छूट गया हो ==
 
घर के किसी न किसी कोने पर
(जहाँ भी कुछ मीठा गिर गया हो)
जाने कहाँ से आ कर
इकट्ठी हो जाती हैं ढेर सारी चींटियाँ
चाहे किसी भी शहर में निकल जाओ ।

तुम पंखा चलाते हो
बाल्टियाँ उंडेलते हो
हल्दियाँ बुरकते हो
झाडू मारते हो -
‘दफा हो जाओ नन्हें बदमाशो
चैन से जीने दो मुझे।’
थोड़ी ही देर में बँध जाती है फिर एक कतार।

तुम पीछा करते हो
चिप्स बिछी फर्श के किनारे-किनारे
डिस्टेम्पर पुती दीवारों के साथ-साथ
टीक के दरवाज़ों की झिर्रियों में से बाहर निकलती
मार्बल की सीढ़ियों पर, राहदरी में
गैराज के शटर के साथ-साथ
लोहे के जंगलों के पार, कोलतार की सड़कों
और धूल भरी पगडंडियों से होते हुए
जाने कहाँ तक चली गई है कतार !

निश्चय ही गांव तक ।

लाख झटकने
झाड़ने और
पोंछने के बावजूद
कैसे चिपका रह जाता है तुम्हारे संस्कारों से
शहद की बूँद सा
एक गांव ।

जाखू ,मई 2002