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मन / हरे प्रकाश उपाध्याय

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मन
उस अपमान को तो मैने दिलपर लिया था
पर यह दिमाग को क्या हो गया था
सबसे अधिक वही रूठ गया था
सामने रखी थी चाय कचरी और मिठाइयां
 हाथों ने निभाई औपचारिकता
मुंह ने दिया साथ
कोई अच्छी धुन बज रही थी
कान सुन रहे थे
 कम से कम सुनने का कर्तव्य तो निभा ही रहे थे
पर न धुन असर डाल रही थी
न चाय कचरी मिठाइयां
उस समय के स्वाद और धुन के बारे में कोई पूछे
तो कुछ नहीं बता पाउंगा मैं
मेरा मन वहां नहीं था
अपमान की गूंजे मन को कहां से कहां ले जाती हैं
मनो वैज्ञानिक कहते हैं मन तो दिमाग का उपक्रम है
लेकिन कैसे कहूं कि दिल से उसकी कितनी नजदीकी है
ये दिल और दिमाग कितने जुडे हैं आपस में
और इतने अक्खड हैं
कि शरीर में रह कर भी
शरीर की औपचारिकताओं और शालीनताओं में
शामिल होने से इनकार कर देते हैं
आपको अजीब लगेगा न
कि आपकी चापलूसी में शामिल नहीं है आपका दिमाग!