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प्रतिविम्बित अक्स / रश्मि प्रभा

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आदमकद शीशे सा उसका व्यक्तित्व
और तार तार उसकी मनःस्थिति !
मैं मौन उसे सुनती हूँ
आकाश में प्रतिविम्बित उसका अक्स
घने सघन मेघों सा बरसता जाता है
धरती सी हथेली पर !
नहीं हिलने देती मैं हथेलियों को
नहीं कहती कुछ...
कैसे कहूँ कुछ
जब वह आकाश से पाताल तक
अपने सच को कहता है !
ओह ... सच की सिसकियाँ
मेरे मौन की गुफा में
पानी सदृश शिवलिंग का निर्माण करती हैं
........
अदभुत है यह संरचना
सबकुछ निर्भीक
शांत
स्व में सुवासित होता !
गंगा आँखों से निःसृत होती है
त्रिनेत्र से दीपक प्रोज्ज्वलित होता है
अपने ही संकल्प परिक्रमा करते हैं
निर्णय मंदिर की घंटियों में
उद्घोषित होते हैं
द्वार पूर्णतया खुले होते हैं
पर दर्शन वही कर पाता है
जो सत्य के वशीभूत होता है !