Last modified on 24 फ़रवरी 2012, at 13:04

'मॉड' वन / सोम ठाकुर

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:04, 24 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोम ठाकुर |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> 'मॉड' वन ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

'मॉड' वन की इस पहाड़ी के ज़रा पीछे
हो गये बेहोश उत्सव
मर गए त्योहार

राख होती चाँदनी में
बिना सर के आदमी जुड़ने लगे
छोड़कर अपने तराशे पाँव धरती पर
नींद में चलते हुए कुछ लोग
भारहीन उछाल तक उड़ने लगे
घूमते सतिये छिटक कर
खो चले अपने शुभम आकर

लपलपाकर मुखौटे से जीभ अपनी
बुदबुदायी खोखली हर प्यास
टूटकर गिरती हुई चट्टान के नीचे
दब गया है छीक लेते हर्ष का इतिहास
झुकी कल के भोर की गर्दन
तन गये भाले, उठी नफ़रत -बुझी तलवार

'ग्राफ' रेखा आँकती सुईयाँ
बुन गयी कितने अनिश्चय - जाल
ध्वंस से आबद्ध नंगे तार पर चढ़ते हुए
हँस रहे है सृजन के कंकाल
'लाल बटनों' के हरे संकेत पर
लटके हुए हम
जी रहे -
खुद में जगे 'धिक्कार' का उच्चार .
हो गये बेहोश उत्सव
मर गये त्योहार