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सरस्वती / बुद्धिनाथ मिश्र

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अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ

मुझसे लिखवाती है ।

जो भी मैं लिखता हूँ

वह कविता हो जाती है ।


कुशल-क्षेम पूरे टोले का

कुशल-क्षेम घर का

बाट जोहते मालिक की

बेबस चर-चाँचर का ।

इतनी छोटी-सी पुर्जी पर

कितनी बात लिखूँ

काबिल बेटों के हाथों

हो रहे अनादर का ।


अपनी बात जहाँ आई

बस, चुप हो जाती है ।

मेरी नासमझी पर यों ही

झल्ला जाती है ।


कभी-कभी जब भूल

विधाता की मुझको छेड़े

मुझे मुरझता देख

दिखाती सपने बहुतेरे ।

कहती-- तुम हो युग के सर्जक

बेहतर ब्रह्मा से

नीर-क्षीर करने वाले

हो तुम्ही हंस मेरे ।


फूलों से भी कोमल

शब्दों से सहलाती है ।

मुझे बिठाकर राजहंस पर

सैर कराती है ।


कभी देख एकन्त

सुनाती कथा पुरा-नूतन

ऋषियों ने किस तरह किए

श्रुति-मंत्रों के दर्शन ।

कैसे हुआ विकास सृष्टि का

हरि अवतारों से

वाल्मीकि ने रचा द्रवित हो

कैसे रामायण ।


कहते-कहते कथा

शोक-विह्वल हो जाती है ।

और तपोवन में अतीत के

वह खो जाती है ।


चर-चाँचर=कृषि योग्य निचली भूमि और जलाशय


(रचनाकाल :19.6.1996)