रोज़ कुछ-न-कुछ हो रहा है
लेकिन कोई है उस ऊपर वाले कमरे में
जो लगातार-लगातार सो रहा है
सोने के लिए कुम्भकर्ण विख्यात है
पर वह भी इस आदमी के आगे मात है
(रचनाकाल : 1973)
रोज़ कुछ-न-कुछ हो रहा है
लेकिन कोई है उस ऊपर वाले कमरे में
जो लगातार-लगातार सो रहा है
सोने के लिए कुम्भकर्ण विख्यात है
पर वह भी इस आदमी के आगे मात है
(रचनाकाल : 1973)