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बिखरन / प्रांजल धर

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रिस-रिस कर टपकतीं गीली भावनाओं की तेज़ाबी बूँदें,
पढ़ता हूँ इस टपकन की बारीक लकीरों को
ओढ़ता काल्पनिक अपनी मुक्ति के विचारों को
रेशमी एक चादर की तरह,
बैठ जाता कभी रंगीन अतीत के बासी किसी फूल पर,
धूल से सनी मधुमक्खी की मानिन्द
कि स्थगित हो जाती चिर-यात्रा समय के विशालकाय वाहन की,
ठहर जातीं श्वेत-श्याम घड़ियाँ
और ठहर जाता मैं भी ।
रूमानी भी नहीं यह स्थगन ।

फ्लैशबैक में चलती एक मुर्दा कैसेट,
कैसेट चलती और चलता ठहराव भी...
वक़्त की आधी सड़ी पीठ से लिपटता एक कबूतर
खोजने लगता ख़तो-क़िताबत में ग़ुम कोई चीज़
हाथ जाता पसीज
खोजता जाता, खोजता ही जाता...

अचानक सृजन की कारुणिक चीत्कारों का कोलाहल
गिरता रात के अँधेरों पर,
बिजलियों से निचुड़कर टपकती हुई
रोशनी की बूँदों की तरह ।

गर्मियों में भी काँपने लगता भीतर का बिम्ब
जाग उठतीं ठुमरियाँ
हिलोर लेती, वंचना की जघन्य मादकता
बहुत शीतल घृणा से भर उठता मन ।

कहाँ चला जाऊँ दूर इस नरक से,
जहाँ यह कोलाहल भी न हो!

एक झीनी लकीर रेंगती आरी का तरह
और कटता चला जाता विश्वासों का कल्पवृक्ष
कटती जातीं उसकी कोमल टहनियाँ
कुछ अठन्नियाँ, चवन्नियाँ
बच रहतीं बारम्बार – रिश्तों की ।

छिटक जातीं रोशनी की ये फूटकर बूँदें
हृदय की विशाल मरुभूमियों पर
मीठे जल का कोई सोता नहीं दूर तक जहाँ
मन बूँदों को जीने लगता और बूँदें मन हो जातीं
एक दूसरे में जीने लगते दोनों - मन और बूँदें ।

फिर बूँद-बूँद करके नि:शेष हो जाता मन
महाकाय खालीपन और निर्वात ही बन जाता नियति
बूँदों की नियति - विलोपन ।
और मन की... बिखरन !

यही बिखरन रह जाती बाकी
कन्धों पर सवार होकर
और फिर गूँजने लगता
सृजन की कारुणिक चीत्कारों का कोलाहल...