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खंडहर / राजेन्द्र सारथी

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बस्ती की वह ककैया र्इंटों की हवेली
जो कभी हंसती-महकती थी
अर्से से पड़ी है वीरान, खंडहर।

उसकी देहरी पर कभी किरणें करती थीं जुहार
सख्त हवाएं करती थीं मनुहार
महफिलें सजा करती थीं जहां
गूंजा करती थी जहां जय-जयकार
आज ध्वंस के प्रहारों ने उसको घेरा है
कहते हैं--
ध्वंस में नव-निर्माण का बसेरा है!

मैंने नहीं पढ़े धर्मशास्त्र
न ही मुझे दर्शनशास्त्र का ज्ञान है
विज्ञान का भी विद्यार्थी मैं नहीं रहा
यदा-कदा मुहावरों में ही सुनी हैं मैंने ये उक्तियां--
कि हर जीव-पदार्थ जीवन चक्र से बिंधा है
हर अस्तित्व को अपना वर्तमान खोना है
नए रूप में परिवर्तित होना है।

अपनी उम्र के उतार पर मैं उद्वेलित हूं
मनन कर रहा हूं अपने शरीर के खंडहर होने
और ढहने को लेकर
विश्लेषित कर रहा हूं अपनी अब तक की जीवन यात्रा को
उस हवेली की तो अनेक गौरव गाथाएं हैं
ढहकर भी वह अर्से तक जिंदा रहेगी लोगों के खयालों में
मैं उपलब्धिविहीन क्या यूं ही अनाम खो जाऊंगा!
क्या मेरी कोई पहचान नहीं रहेगी पीछे!
मैं किसी विषय का विशेषज्ञ नहीं
जिससे लोग मुझे बाद में याद करें
हां, मैं अपने अनुभवों के सत्य को
कविताओं में जरूर उतारता हूं
यह मेरी कविताएं ही शायद
मेरी मौत के बाद
मुझे जिंदा रखें।