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श्रमिक पचीसी / विपिन चौधरी

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कैसे घर कर लेता है एक कीड़ा
फल में
क्या उसे गंध से प्रेम है ?

‘गंध मज़बूरी है
प्रेम नहीं’
कीड़ा भूखा है
मुग्ध नहीं

ठीक गटर के बीच में घुस
एक मज़दूर दुर्गन्ध में कुनमुनाता है
मज़दूर बेबस है
बहादुर नहीं

भूख तो
उस प्रेम को भी पटकनी दे सकता है
जिसका माई-बाप ख़ुदाओं का ख़ुदा माना गया है

हम मज़दूरों की पहुँच भी ऐसे ही तो है
नीचे से नीचे गहराई में
ऊपर से ऊपर अंतस ऊँचाई में

मज़दूर बेलगाम बोल उठते हैं
हमारी हड्डियों में कैल्सियम नहीं
शीशा है
आँखों में रतौंदी

हमारी माँएँ घरों में बर्तन माँजती हैं
बहनें सैलानियों का मनोरंजन करती हैं
भाई बजरबट्टू बने सड़क पर पानी की बोतलें बेचते हैं

दुनिया भर की अजीबों-गरीब बीमारियाँ
बाजीगरी दिखती हुई
एक मज़बूत रस्सी की मदद से
सीधी हमारे जिस्मों में उतरती हैं

अपने ही देशों में विस्थापित हम
हमारे धर्म अलग
जाति अलग
हमारी भूख अलग
हमारी प्यास अलग
हमारे राशन कार्ड अलग
हमारी जनगणना अलग
हम अलग थलग शलग
हमारा थूक अलग
हमारा पेशाब अलग

देखते तो हो ही तुम
बाल मज़दूरी के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद करने वाले अगवाओं के
घर हम रोटी पकाते
बर्तन साफ़ करते पाए गए

हमारा श्रम-देवता भी
तुम्हारी चिकनी दुनिया की ओर मुँह भी नहीं करता
बस आशीर्वाद देता है
“प्रसन्न रहो ओर हमारी मेहनत पर ऐश करो’