रोज बूढ़े लोग इकट्ठे होते हैं
सब तरह के दुःखों से थके
छोटे डरे बच्चों की तरह
अपने क्लेशों की लम्बी फहरिश्त पढ़ते हुए
गठिया, रक्तचाप, डायबिटीज
लड़कियों के रंगीन चश्मे
लड़कों की बेफिक्र हँसी
प्रेम और बाँकपन
एक बैंच पर बैठे हैं वे सब
सूर्यास्त की रोशनी में
अपने अतीत की बातें करते
मैं दुपहर में जिनका
हालचाल पूछता था
अपने तारूण्य पर आत्म-मुग्ध
एकना नहीं हो जैसे
कनटोपा पहनकर उन्हीं के बीच बैठा हूँ
विगत की आँच पर गरमाता हुआ
आज की दुनिया पर शोक करता
जो हमारे लिए नहीं रही
बूढ़े लोगों के पास
अपनी जीर्ण-शीर्ण दुनिया की
शान बघारने के सिवा बचता ही क्या है ?