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नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ / सूरदास

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राग नट

नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ ।
ब्रज-बीथिनि, पुर-गलिनि, घरै-घर, घाट-बाट सब सोर मचायौ ॥
लरिकनि मारि भजत काहू के, काहू कौ दधि-दूध लुटायौ ।
काहू कैं घर करत भँड़ाई, मैं ज्यौं-ज्यौं करि पकरन पायौ ॥
अब तौ इन्है जकरि धरि बाँधौं, इहिं सब तुम्हरौ गाउँ भजायौ ।
सूर स्याम-भुज गहि नँदरानी, बहुरि कान्ह अपनैं ढँग लायौ ॥


भावार्थ :-- (गोपी कहती है-) `नन्दरानी ! तुमने पुत्र को अच्छी शिक्षा दी है व्रज की गलियों में, नगर के मार्गो में, घर-घर में, घाटों पर, कच्चे रास्तों में-सब कहीं उसने हल्ला (ऊधम) मचा रखा है । किसी के लड़कों को मारकर भाग जाता है, किसी का दूध-दही लुटा देता है, किसी के घर में घुसकर ढूँढ़-ढ़ाँढ़ करता है, जैसे-तैसे कर के मैं इसे पकड़ सकी हूँ । अब तो इसे जकड़कर बाँध रखो, इसने तुम्हारे सारे गाँव को भगा दिया (इसके ऊधम से तंग होकर सब लोग गाँव छोड़कर जाने लगे)।' सूरदास जी कहते हैं कि श्रीनन्दरानी ने श्यामसुन्दर का हाथ पकड़ लिया; किंतु कन्हाई तो फिर अपने ही ढंग में लग गये (पूर्ववत् ऊधम करते रहे) ।