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इन दिनो / राहुल राजेश

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इत्मिनान और सुख की
एक झीनी चादर है बदन पर
चेहरे पर उल्लास नहीं है
जीवन में एक नया संसार है
पर नया कुछ खास नहीं है
शहर-दर-शहर बदला
पर घर का अहसास नहीं है
अंदर जो एक चिनगारी हुआ करती थी
वो बुझ-सी गई है इन दिनों

खुद से बगावत पर आमदा हूँ
पर अंदर वो आग नहीं है
घर-दफ्तर के इस दूधिया आडंबर में
सबकुछ है, पर आँगन की
चौपालों की बात नहीं है

बेसाख्ता याद आ रहे हैं
फाकामस्ती के दिन इन दिनों
बाहर बसंत तारी है
भीतर पतझड़ से गुजर रहा हूँ इन दिनों

गाँव के कुँए का मीठा जल
प्यास बन अटका पड़ा है कंठ में
पर फिल्टर का पानी गटक रहा हूँ इन दिनों।