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महादेवी वर्मा / परिचय

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महादेवी वर्मा का जन्म होली के दिन 26 मार्च, 1907 को फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ और निधन 22 सितम्बर, 1987, प्रयाग में । हिन्दुस्तानी स्त्री की उदारता, करुणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता उनके व्यक्तित्व में समाविष्ट थी । उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विलक्षणता से अभिभूत रचनाकारों ने उन्हें ‘साहित्य साम्राज्ञी, हिन्दी के विशाल मंदिर की वीणापाणि’, ‘शारदा की प्रतिमा’ आदि विशेषणों से अभिहित करके उनकी असाधारणता को लक्षित किया । महादेवी जी ने एक निश्चित दायित्व के साथ भाषा, साहित्य, समाज, शिक्षा और संस्कृति को संस्कारित किया । कविता में रहस्यवाद, छायावाद की भूमि ग्रहण करने के बावजूद सामयिक समस्याओं के निवारण में उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभाई ।

महादेवी जी में काव्य प्रतिभा सात वर्ष की उम्र में ही मुखर हो उठी थी । विद्यार्थी जीवन में ही उनकी कविताएं देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने लगीं थीं । प्रयाग में अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद हिन्दी के प्रति गहरा अनुराग रखने के कारण वे दिनों-दिन साहित्यिक क्रियाकलापों से जुड़ती चली गई । उन्होंने न केवल ‘चांद’ का सम्पादन किया वरन् हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ की स्थापना की । उन्होंने ‘साहित्यकार’ मासिक का संपादन किया और ‘रंगवाणी’ नाट्य संस्था की भी स्थापना की ।

महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ एक विशिष्ट गद्यकार थीं । उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं – काव्य- नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, यामा, दीपशिखा, सप्तपर्णा, सांधीनी । गद्य- रेखाचित्रः अतीत के चलचित्र, समृति की रेखाएं, पथ के साथी, मेरा परिवार । निबंध-आलोचनाः श्रृंखला की कड़ियाँ, विवेचनात्मक गद्य, क्षणदा साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध, संकल्पिता । विविध संकलनः स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध । इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगाल के अकाल के समय 'बंग दर्शन' तथा चीन के आक्रमण के समय 'हिमालय' का संपादन भी किया ।

महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है । उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवयित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है । उनकी अनुभूतियां प्रायः अज्ञात प्रिय के प्रति मौन समर्पण के रुप में हैं । उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड़ावों के समान है । उनमें प्रेम एक प्रमुख तत्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड़ा हुआ है । इनमें प्रायः सहज मानवीय भावनाओं और आकर्षण के स्थूल संकेत नहीं दिए गए हैं, बल्कि प्रतीकों के द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया गया है ।

छायावादी कवियों में महादेवी जी की कविता का अपना अलग रंग-ढंग है। उनकी कविता ने वेदना में जन्म लिया और करुणा में आवास पाया। ‘नीहार’ से लेकर ‘दीपशिखा’ तक वेदना की अनेक स्थितियाँ और अनुभूतियाँ अंकित हैं। मगर उन्होंने दुःख के उसी रूप को वांछित माना, जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार के एक अविछन्न बंधन में बाँध देता है। मानवीय रागात्मकता को काव्य करुणा में ढाला । लेकिन-कविता की अंतश्चेतना तक पहुँचे बिना उनकी कविता में निहित दुःखवाद पर तरह-तरह के आरोप लगे । उस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा गया ‘इतनी सी मटकी उसमें मनों आंसू’ । उन्हें मात्र ‘नीर भरी दुःख की बदरी’और ‘एकाकिनी बरसात’ समझकर घोर निराशावादी घोषित कर दिया गया। उनके काव्य में आत्मरतिवाद, प्रतीकवाद, आत्मपीड़नवाद और पलायनवाद को ही ढूंढकर उसे जीवन के अस्वीकार का काव्य मान लिया गया। लेकिन यह दृष्टिकोण एकांगी है। यह सही है कि उनकी कविता में सामयिकता का आग्रह और दबाव नहीं हि, यथार्थ की खंडित दृष्टि नहीं है और उसमें पीड़ा, निराशा और पलायन के तत्व भी मौजूद हैं। लेकिन यह भी सच है कि दुःख को कविता की अनुभव बस्तु में डालकर महादेवी जी ने सुखवाद से मुंह नहीं मोड़ा है। उनका काव्य जीवन, सौंदर्य और आनन्द का भी आकांक्षी है।

काव्य की तरह महादेवी जी का गद्य भी विशिष्ट है। भावावेग के तीव्र क्षणों में महादेवी जी की कलम पद्य की ओर मुड़ी तो वैचारिक उत्तेजना और सामयिक दबाव के क्षणों में सामयिक विश्लेषण और विवेचन के लिए उन्होंने गद्य का आँचल थामा। एक कवि के रूप में उनके कोमल, करुण और व्यथित मन से साक्षात्कार होता है तो गद्यकार के रूप में उनका प्रखर, औजस्वी और दृढ़ रुप सामने आता है। महादेवी जी का गद्य संस्कृति, भाषा, नारी समस्या आदि पर उनकी बेबाक और निर्भीक अभिव्यक्ति है। गद्य में बौद्धिक और वैचारिक विवेचन और निष्कर्ष के साथ-साथ एक कवयित्री के संवेदनशील हृदय का स्पंदन भी मौजूद है, जो यह दर्शाता है कि उन्होंने एकांतिक जीवन की संपूर्णता के उत्प्रेरक चित्र ही नहीं खींचे वरन् सामयिक संषर्ष, उथल-पुथल, विकृतियों और विसंगतियों पर भी विद्रोहात्मक प्रहार किया है।