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सपने / उमेश चौहान

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सच तो साबित वे सपने ही होते हैं
जिन्हें हम सच्चा मान बैठते हैं
नींद के टूटने के बाद भी
और एकदम ही झूठे होते हैं वे सपने
जिनके बारे में हमें कुछ भी याद नहीं रहता
अपनी आँखें खोल लेने के बाद ।

वैसे सपने तो खुली आँखों से भी देख सकते हैं हम
लेकिन बड़ा मुश्किल होता है
इन दिवास्वप्नों का सच साबित होना
क्योंकि हमारी खुली आँखों के सामने जो कुछ भी घटित हो रहा होता है
उसमें प्रायः कुछ भी तो काल्पनिक नहीं होता
और वास्तविकता को काल्पनिक मानकर बुना गया कोई भी सपना
कभी वापस हक़ीक़त में बदल ही नहीं सकता,
दोस्तो ! खुली आँखों से हम सपने नहीं
बस सच की तस्वीर ही देख सकते हैं ।

अपनी आँखें खुल जाने पर ही तो हम गढ़ते हैं वे औज़ार
और भरते हैं अपने भीतर वह अटूट इच्छा-शक्ति
जिसके सहारे ही जुट सकते हैं हम
सोते समय देखे गए अपने तमाम सपनों को सच साबित करने में ।