प्रिय! मेरे चरणों से पागल-सी ये लहरें टकराती हैं,
मेरे सूने उर-निकुंज में क्या कह-कह कर जाती हैं?
एक बार तेरे सुन्दर चरणों को जब वे छू लेती हैं-
'नहीं पुन: यह भाग्य मिलेगा', यही सोच वे रो देती हैं।
प्रिय! जब मेरे गात्रों में आ कर छिप जाता है मलयानिल,
तब किस ध्वनि से मुखरित हो उठता है मेरा विलुलित आँचल?
तेरा कुसुम-कलेवर पहले ही है उस से अधिक सुवासित-
यही देख वह ठंडी आहें भर लेता है हो कर लज्जित!
प्रिय! जब तुझ को मिलने आती हूँ मैं खेतों में से हो कर,
तब क्यों सुमन नाच उठते हैं अपने तन की सुध-बुध खो कर?
इतनी सुन्दर हो कर भी बनी हुई है इतनी भोली-
यही देख मन-रंजित हो तुझ से करते हैं सुमन ठठोली!
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931