विजय? विजेता! हा! मैं तो हूँ स्वयं पराजित हो आया!
जग में आदर पाने के अधिकार सभी मैं खो आया।
नहीं शत्रु को शोणित-सिक्त, धराशायी कर आया हूँ,
नहीं छीन कर संकुल रण में शत्रु-पताका लाया हूँ।
नहीं सुनाने आया हूँ मैं, वीरों की वीरत्व-कथा;
हो कर विजित, विमुख हो रण से घर आया हूँ यथा-तथा।
गया कभी था अखिल विश्व को जीत स्वयं शासन करने-
गर्वपूर्ण उन्नत ललाट पर भैरव शोण-तिलक धरने;
समर-भूमि की लाल धूल में बिखर गयीं वे आशाएँ
आया हूँ मैं पलट आज, खो अपनी सब अभिलाषाएँ।
मैं हूँ विजित, तिरस्कृत, घायल अंग हुए जाते हैं श्रान्त,
लौट किन्तु आया हूँ घर को जाने किस आशा में भ्रान्त!
केवल कहीं किसी के टूटे हृदय-गेह के कोने में
सुप्त प्रणय के आँचल में मुँह छिपा, दीन हो रोने में-
इतने ही तक सीमित है मम घायल प्राणों की अब प्यास
और कहीं आश्रय पाने की नहीं रही अब मुझको आस!
भग्न गेह की टूटी प्राचीरों का कर फिर से निर्माण,
आत्म-भत्र्सना की छाया में सुला-सुला बिखरे अरमान
अन्धकार में तड़प-तड़प कर मुझ को अब सो जाने दो-
विजिगीषा की स्मृति में विजित-व्यथा को आज भुलाने दो!
दिल्ली जेल, 16 फरवरी, 1932