प्रियतम, पूर्ण हो गया गान!
हम अब इस मृदु अरुणाली में होवें अन्तर्धान!
लहर-लहर का कलकल अविरल, काँप-काँप अब हुआ अचंचल
व्यापक मौन मधुर कितना है, गद्गद अपने प्राण!
ये सब चिर-वांछित सुख अपने, बाद उषा के होंगे सपने-
फिर भी इस क्षण के गौरव में हम-तुम हों अम्लान।
नभ में राग-भरी रेखाएँ, एक-एक कर मिटती जाएँ-
किसी शक्ति के स्वागत को है यह बहुरंग वितान।
मरण? पिघल कर सजल शक्ति से, मिल जाना उस महच्छक्ति से!
करें मृत्यु का क्यों न उल्लसित हो कर हम आह्वान!
राग समाप्त! चलो अब जागो, निद्रा में नव-चेतन माँगो!
नयी उषा का मृत्यु हमारी से होगा उत्थान!
प्रियतम, पूर्ण हो गया गान!
डलहौजी, सितम्बर, 1934