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अंतिम आलोक / अज्ञेय

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सन्ध्या की किरण-परी ने
उठ अरुण पंख दो खोले
कम्पित-कर गिरि-शिखरों के
उर-छिपे रहस्य टटोले ।

        देखी उस अरुण किरण ने
        कुल पर्वत-माला श्यामल—
        बस एक शृंग पर हिम का
        था कम्पित कंचन झलमल ।

प्राणों में हाय पुरानी
क्यों कसक जग उठी सहसा ?
वेदना-व्योम से मानो—
खोया-सा स्मृति-घन बरसा !

        तेरी उस अन्त-घड़ी में
        तेरी आँखों में, जीवन !
        ऐसा ही चमक उठा था
        तेरा अन्तिम आँसू-कन !

अक्टूबर, 1934