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गा दो / अज्ञेय

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 कवि, एक बार फिर गा दो!
एक बार इस अन्धकार में फिर आलोक दिखा दो!
अब मीलित हैं मेरी आँखें पर मैं सूर्य देख आया हूँ;
आज पड़ी हैं कडिय़ाँ पर मैं कभी भुवन भर में छाया हूँ;

उस अबाध आतुरता को कवि, फिर तुम छेड़ जगा दो!
आज त्यक्त हूँ, पर दिन था जब सारा जग अँजुली में ले कर
ईश्वर-सा मैं ने उस को था एक स्वप्न पर किया निछावर!
उस उदारता को ज्वाला-सा उर में पुन: जला दो!

बहुत दिनों के बाद आज, कवि! मुझ में फिर कुछ जाग रहा है,
दर्प-भरे अप्रतिहत स्वर में जाने क्या कुछ माँग रहा है,
मेरे प्राणों के तारों को छू कर फिर तड़पा दो!
अभी शक्ति है कवि, इस जग को धूली-सा अँजुली में ले कर

बिखरा दूँ, बह जाने दूँ, या रचूँ किसी नूतन ही लय पर!
तुम मुझ को अनथक कृतित्व का भूला राग सुना दो!
कवि, एक बार फिर गा दो!

गुरदासपुर, 12 अप्रैल, 1935