Last modified on 19 जुलाई 2012, at 21:59

एक चित्र / अज्ञेय

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:59, 19 जुलाई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय }} {{...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

 मुझे देख कर नयन तुम्हारे मानो किंचित् खिल जाते हैं,
मौन अनुग्रह से भर कर वे अधर तनिक-से हिल जाते हैं।
तुम हो बहुत दूर, मेरा तन अपने काम लगा रहता है-
फिर भी सहसा अनजाने में मन दोनों के मिल जाते हैं,

इस प्रवास में चित्र तुम्हारा बना हुआ है मेरा सहचर,
इसीलिए यह लम्बी यात्रा नहीं हुई है अब तक दूभर।
इस उन्मूलित तरु पर भी क्यों खिलें न नित्य नयी मंजरियाँ-
छलकाने को स्नेह-सुधा जब छवि तेरी रहती चिर-तत्पर?

घुट जाते हैं हाथ चौखटे पर, यद्यपि यह पागलपन है,
रोम पुलक उठते हैं, यद्यपि झूठी यह तन की सिहरन है;
प्राप्ति कृपा है वरदाता की, साधक को है सिद्धि निवेदन-
छवि-दर्शन तो दूर, मुझे तेरा चिन्तन ही महामिलन है!

आगरा, दिसम्बर, 1936