रात के रहस्यमय, स्पन्दित तिमिर को भेदती कटार-सी,
कौंध गयी बौखलाये मोर की पुकार-
वायु को कँपाती हुई,
छोटे-छोटे बिन जमे ओस-बिन्दुओं को झकझोरती,
दु:सह व्यथा-सी नभ पार!
मेरे स्मृति-गगन में सहसा अन्धकार चीर कर आया एक चेहरा उदास।
आँखों की पुतलियों में सोयी थीं बिजुलियाँ-
किन्तु वेदना का आद्र्र घन छाया आस-पास!
एक क्षण। केकी की पुकार से फटा हुआ
रात का रहस्यगर्भ स्पन्दित तिमिर फिर व्रण निज
ढँक कर फैल कर मिल गया-
जैसे कोई निराकार चेतना
जीवन की अल्पतम अनुभव-लहर की चोट सोख लेती है
और मानो चोट खाये स्थल को
देने की विशेष कोई स्निग्ध-स्पर्श सान्त्वना-
रात के कुहासे में से एक छोटा तारा फूट निकला।
किन्तु मेरी स्मृति के ओर-छोर-मुक्त, गतियुक्त-से गगन में
थम गया, जम गया, वह स्थिर-नेत्र-युक्त चेहरा उदास :
आँखों में सुलाये हुए तड़पती बिजुली-
और आद्र्र वेदना के घन छाये आस-पास!
मेरी चेतना उसी के चिन्तन से प्लावित है युग-युग-
चोट नहीं, वही मेरी जीवनानुभूति है।
खुला ही रहे ये मेरा वातायन वेदना का,
देखता रहूँ मैं सदा अपलक वह छवि, दीप्तियुक्त-छायामय-
मिटो मत मेरे स्मृति-पटल के तल से,
हटो मत मेरी प्यासी दृष्टि के क्षितिज से,
मेरे एकमात्र संगी चेहरे उदास :
मुझे चाह नहीं अन्य स्निग्ध-स्पर्श सान्त्वना की
तुम्हीं मेरा जीवन-कुहासा भेद उगा हुआ तारा हो!
दिल्ली, 8 अगस्त, 1941