अभी माघ भी चुका नहीं, पर मधु का गरवीला अगवैया
कर उन्नत शिर, अँगड़ाई ले कर उठा जाग
भर कर उर में ललकार-भाल पर धरे फाग की लाल आग।
धूल बन गयी नदी कनक की-लोट-पोट न्हाती गौरैया।
फूल-फूल कर साथ-साथ जुड़ ढीठ हो गये चिरी-चिरैया
आया हचकोला फाग का :
खग लगे परखने नये-नये सुर अपने-अपने राग का
(बिसरा कर सुध, कल बन जाएगा यही बगूला आग का!)
'बिगड़ी बयार को ले जाने दो सूखे पीले पात पुरानी चैत के!
इठलाती आयी फुनगी, पावस में डोल उठी हरखायी नैया-
दिन बदला उन का, अब है काल खेवैया!'
सहसा झरा फूल सेमर का गरिमा-गरिम, अकेला, पहला,
क्या टूट चला सपना वसन्त का चौबारा, चौमहला, लाल-रुपहला?
झर-झर-झर लग गयी झड़ी-सी
टहनी पर बस टँगी रह गयी अर्थहीन उखड़ी-सी
टुच्ची-बुच्ची ढोंडिय़ाँ लँढूरी पर-खोंसे झुलसे पाखी-सी
खिसियाये मुँह बाये।
पहले ही सकुची-सिमटी
दब गयी पराजय के बोझे से लद किसान की झुकी मड़ैया!
क्रमश: आये
दिन चैती : सौगात नयी क्या लाये?
-बाल बिखेरे, अपना रूखा सिर धुनती (नाचे ता-थैया!)
बेचारी हर-झोंके-मारी, विरस अकिंचन सेमर की बुढिय़ा मैया!
जालन्धर, अप्रैल, 1945