पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती। चेतना अन्तर्मुखी स्मृति-लीन होती है, देह भी पर सजग है-खोने नहीं देती। निशा के उर में बसे आलोक-सी है व्यथा व्यापी- प्यार में अभिमान की पर कसक ही रोने नहीं देती। पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती! जालन्धर, 24 जून, 1945