नभ में सन्ध्या की अरुणाली, भू पर लहराती हरियाली,
है अलस पवन से खेल रही भादों की मान भरी शाली :
री, किस उछाह से झूम उठी तेरी लोलक-लट घुँघराली?
झुक कर नरसल ने सरसी में अपनी लघु वंशी धो ली,
झिल्ली के प्लुत एक स्वर में संसृति की साँय-साँय बोली :
किस दूरी से आहूत, अवश, उड़ चली विहगों की टोली :
किस तरल धूम से भर आयीं तेरी आँखें काली-काली?
-भादों की मान-भरी शाली!
जलन्धर, 1945