अपलक रूप निहारूँ
तन-मन कहाँ रह गये?
चेतन तुझ पर वारूँ,
अपलक रूप निहारूँ!
अनझिप नैन, अवाक् गिरा
हिय अनुद्विग्न, आविष्ट चेतना
पुलक-भरा गति-मुग्ध करों से
मैं आरती उतारूँ।
अपलक रूप निहारूँ।
प्नोम् पेञ् (कम्बुजिया), 2 नवम्बर, 1957