Last modified on 30 जुलाई 2012, at 18:02

मानव अकेला / अज्ञेय

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:02, 30 जुलाई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभाम...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

     भीड़ों में जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं
     वह सहसा दिख जाता है
     मानव अंगारे-सा-भगवान्-सा
     अकेला।
     और हमारे सारे लोकाचार
     राख की युगों-युगों की परते हैं।

जनवरी, 1958