ऊषा अनागता, पर प्राची में जगमग तारा एकाकी;
चेत उठा है शिथिल समीरण :
मैं अनिमिष हो देख रहा हूँ यह रचना भैरव छविमान!
दूर कहीं पर, रेल कूकती, पीपल में परभृता हूकती,
स्वर-तरंग का यह सम्मिश्रण
जाने जगा-जगा क्यों जाता उर में विश्व-स्नेह का ज्ञान!
वस्तु मात्र की सुन्दरता से, जीवन की कोमल कविता से,
भरा छलकता मेरा अन्तर-
किन्तु विश्व की, इस विपुला आभा में कहीं न तेरा स्थान!
भुला-भुला देती यह माया कहाँ तुझे मैं हूँ खो आया-
यदपि सोचता बड़े यत्न से;
बिखर-बिखर जाते विचार हैं पा कर यह आकाश महान!
दिल्ली जेल, 4 नवम्बर, 1932