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भीम-प्रवाहिनी / अज्ञेय

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 भीम-प्रवाहिनी नदी के कूल पर बैठा मैं दीप जला-जला कर उस में छोड़ता जा रहा हूँ।
प्रत्येक दीप का विसर्जन कर मैं सोचता हूँ-'यही मेरा अन्तिम दीप है।'
किन्तु जब वह धीरे-धीरे बहुत दूर निकल कर दृष्टि से ओझल हो जाता है, जब श्यामा नदी के वक्ष पर, उस के क्षीण हास्य की अन्तिम आलोक-रेखा बुझ जाती है, तब अपने आगे असंख्य तारकों से भरे नभ-मण्डल का शीतल और नीरव सूनापन देख कर मेरे भीरु हृदय में फिर एक बन्धु की चाह जाग्रत हो उठती है। मैं फिर एक दीप जला कर उसे जल पर तैरा देता हूँ।
उस का कम्पित और अनिश्चयपूर्ण नृत्य देख कर मुझे मालूम होता है कि मैं अकेला नहीं हूँ-कोई अपनी क्षण-भंगुर ज्योति से मुझे सान्त्वना दे रहा है।
मैं अपने सारे दीप बहा चुका हूँ। वह, जिसे मैं लिये खड़ा हूँ, यही एकमात्र बच गया है।
इस की कम्पित शिखा से मेरे आस-पास एक छोटा-सा आलोकित वृत्त बन रहा है। उसे देख कर मैं अनुभव करता हूँ कि मैं किसी अज्ञात स्नेह और सहानुभूति से घिरा हुआ हूँ।
अन्तिम बन्धु! मैं तुम्हारा विसर्जन नहीं कर सकूँगा। तुम्हें यहीं कूल पर छोड़ कर मैं स्वयं चला जा रहा हूँ।
मेरे क्षणिक जीवन के क्षणिकतर स्मृति-चिह्न के समान यहाँ जलते रहो, कुछ काल के लिए-मेरे चले जाने तक-और उस स्थान को आलोकित किये रहो जिस पर खड़े हो कर मैं ने अपने सारे दीप भीम-प्रवाहिनी नदी के वक्ष पर विसर्जित कर दिये हैं।

दिल्ली जेल, 19 दिसम्बर, 1932