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हमारा प्रेम / अज्ञेय

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 हमारा प्रेम एक प्रज्वलित दीप है। तुम उस दीप की शिखा हो, मैं उस की छाया।
मेरे अन्तर की दुर्दनीय लालसाएँ अन्धकार की लपलपाती जिह्वाओं-सी तुम्हें ग्रसने आती हैं, और तुम्हारी कान्ति पर क्रूर आक्रमण करती हैं। तुम एकाएक काँप उठती हो, मानो अभी मुझे छोड़ कर चली जाओगी।
किन्तु तुम्हारा अवसाद क्षण ही भर में धुआँ हो कर उड़ जाता है-और तुम्हारी काया फिर अपनी अम्लान आभा से दीप्त हो उठती है। मैं भी स्थिर हो कर अपने स्थान पर आ जाता हूँ, और दीप की आड़ से तुम्हारा अनिन्द्य और अनिर्वचनीय सौन्दर्य देखा करता हूँ।
हमारा प्रेम एक प्रज्वलित दीप है। तुम उस दीप की शिखा हो, मैं उस की छाया।

दिल्ली जेल, 15 दिसम्बर, 1932