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घन-गर्जन / अज्ञेय

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 घन-गर्जन सुन नाचे मत्त मयूर-
प्रियतम! तुम हो मुझ से कितनी दूर!
'कदली, कदम, पिकाकुल कल-सरि-कूल'-
निर्मम! कभी सकूँगी तुम को भूल?

लाहौर, अगस्त, 1936