'चक्रवाकवधुके! आमन्त्रयस्व सहचरं। उपस्थिता रजनी।'
गोधूली की अरुणाली अब बढ़ते-बढ़ते हुई घनी,
वधुके, जाने दो सहचर को अब है उपस्थिता रजनी!
दिन में था सुख-साथ, किन्तु अब अवधि हो गयी उस की शेष-
पीड़ा के गायन में हो स्वप्नों का कम्पित नयन-निमेष!
रजनी है अवसान; समाप्त प्रणय है, पर देखो? सब ओर-
विरह-व्यथा की है विह्वल रक्तिम रागिनी बनी अवनी!
वधुके, जाने दो सहचर को अब है उपस्थिता रजनी!
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इस छन्द की पहली और तीसरी पंक्ति ब्राउनिंग की एक कविता की पंक्तियों का स्वच्छन्द अनुवाद है।