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पावस-प्रात / अज्ञेय

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भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक
की विजन को पकड़ती-सी क्लान्त बेसुर डाक-
'हाक्! हाक्! हाक्!'
मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना-
रहेगी बस एक मुट्ठी खाक!
'थाक्! थाक्! थाक्!'

शिलङ्, 12 जुलाई 1947