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रुकेंगे तो मरेंगे / अज्ञेय

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सोचने से बचते रहे थे, अब आयी अनुशोचना।
रूढिय़ों से सरे नहीं (अटल रहे तभी तो होगी वह मरजाद!)
अब अनुसरेंगे-नाक में नकेल डाल जो भी खींच ले चलेगा

उसी को! चलो, चलो, चाहे कहीं चलो, बस बहने दो :
व्यवस्था के, शान्ति, आत्मगौरव के, धीरज के
ढूह सब ढहने दो-बुद्धि जब जड़ हो तो
मांस-पेशियों की तड़पन को

जीवन की धड़कन मान लें-
(जब घोर जाड़े में
कम्बल का सम्बल न होता पास
तब हम जबड़े की किटकिट ही से बाँधते हैं आस
कुछ गरमाई की!)

भागो, भागो, चाहे जिस ओर भागो
अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहाँ-
रुकेंगे तो मरेंगे!


इलाहाबाद, 24 अक्टूबर, 1947