Last modified on 4 अगस्त 2012, at 15:10

गाड़ी रुक गई / अज्ञेय

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:10, 4 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=शरणार्थी / अज्ञेय }}...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रात गाड़ी रुक गयी वीरान में।
नींद से जागा चमक कर, सुना
पिछले किसी डिब्बे में किसी ने

मार कर छुरा किसी को दिया बाहर फेंक
रुकी है गाड़ी-यहीं पड़ताल होगी।
न जाने कौन था वह पर हृदय ने
तभी साखी दी रात में कोई अभागा

मार बैठा छुरा अपने ही हृदय में
स्वयं अपने को उठा कर फेंक बैठा
दनदनाती बढ़ रही कुल मनुजता की रेल से।
और उस के लिए रुकना पड़ेगा

मनुजता के यान को मुक्ति-उन्मुख रथ
हमारा-वाहिनी सारी-यहाँ रुक जाएगी-
देह अपने रोग का भी भार ढोती है।
धिक्! पुन: धिक्कार! और यह धिक्कार

हिन्दू या मुसल्मां नहीं, यह धिक्कार
आक्रोश है अपमानिता मेरी मनुजता का!

काशी, 4 नवम्बर, 1947