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समानांतर साँप / अज्ञेय

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 (1)

हम एक लम्बा साँप हैं
जो बढ़ रहा है ऐंठता-खुलता, सरकता, रेंगता।
मैं-न सिर हूँ (आँख तो हूँ ही नहीं)
दुम भी नहीं हूँ

औ' न मैं हूँ दाँत जहरीले।
मैं-कहीं उस साँप की गुंजलक में उलझा हुआ-सा
एक बेकस जीव हूँ।
ब गल से गु जरे चले तुम जा रहे जो,
सिर झुकाये, पीठ पर गट्ठर सँभाले

गोद में बच्ची लिये
उस हाथ से देते सहारा किसी बूढ़े या कि रोगी को-
पलक पर लादे हुए बोझा जुगों की हार का-
तुम्हें भी कैसे कहूँ तुम सृष्टि के सिरताज हो?

तुम भी जीव हो बेबस।
एक अदना अंग मेरे पास से हो कर सरकती
एक जीती कुलबुलाती लीक का
जो असल में समानान्तर दूसरा

एक लम्बा साँप है।
झर चुकीं कितनी न जाने केंचुलें-
झाडिय़ाँ कितनी कँटीली पार कर के बार-बार,
सूख कर फिर-फिर

मिलीं हम को जिंदगी की नयी किस्तें
किसी टुटपुँजिये
सूम जीवन-देवता के हाथ।
तुम्हारे भी साथ, निश्चय ही

हुआ होगा यही। तुम भी जो रहे हो
किसी कंजूस मरघिल्ले बँधे रातिब पर!

(2)

दो साँप चले जाते हैं।
बँध गयी है लीक दोनों की।
यह हमारा साँप-हम जा रहे हैं
उस ओर, जिस में सुना है

सब लोग अपने हैं;
वह तुम्हारा साँप-
तुम भी जा रहे हो, सोचते निश्चय, कि वह तो देश है जिस में
सत्य होते सभी सपने हैं।
यह हमारा साँप-

इस पर हम निछावर हैं।
जा रहे हैं छोड़ कर अपना सभी कुछ
छोड़ कर मिट्टी तलक अपने पसीने-ख़ून से सींची
किन्तु फिर भी आस बाँधे

वहाँ पर हम को निराई भी नहीं करनी पड़ेगी,
फल रहा होगा चमन अपना
अमन में आशियाँ लेंगे।
वह तुम्हारा साँप-

उस को तुम समर्पित हो।
लुट गया सब कुछ तुम्हारा
छिन गयी वह भूमि जिस को
अगम जंगल से तुम्हारे पूर्वजों ने ख़ून दे-दे कर उबारा था

किन्तु तुम तो मानते हो, गया जो कुछ जाय-
वहाँ पर तो हो गया अपना सवाया पावना!

(3)

यह हमारा साँप जो फुंकारता है,
और वह फुंकार मेरी नहीं होती
किन्तु फिर भी हम न जाने क्यों
मान लेते हैं कि जो फुंकारता है, वह

घिनौना हो, हमारा साँप है।
वह तुम्हारा साँप-तुम्हें दीक्षा मिली है
सब घृण्य हैं फूत्कार हिंसा के
किन्तु जब वह उगलता है भा फ जहरीली,

तुम्हें रोमांच होता है-
तुम्हारा साँप जो ठहरा!

(4)

उस अमावस रात में-घुप कन्दराओं में
जहाँ फौलादी अँधेरा तना रहता है
खड़ी दीवार-सा आड़ कर के
नीति की, आचार, निष्ठा की

तर्जनी की वर्जना से
और सत्ता के असुर के नेवते आयी
बल-लिप्सा नंगी नाचती है :
उस समय दीवार के इस पार जब छाया हुआ होगा

सुनसान सन्नाटा उस समय सहसा पलट कर
साँप डस लेंगे निगल जाएँगे-
तुम्हें वह, तुम जिसे अपना साँप कहते हो
हमें यह, जो हमारा ही साँप है!

(5)

रुको, देखूँ मैं तुम्हारी आँख,
पहचानूँ कि उन में जो चमकती है-
या चमकनी चाहिए क्योंकि शायद
इस समय वह मुसीबत की राख से ढँक कर

बहुत मन्दी सुलगती हो-
तड़पती इनसानियत की लौ-
रुको, पहचानूँ कि क्या वह भिन्न है बिलकुल
उस हठीली धुकधुकी से

जनम से ही जिसे मैं दिल से लगाये हूँ?
रुको, तुम भी करो ऊँचा सीस, मेरी ओर
मुँह फेरो-करो आँखें चार झिझक को
छोड़ मेरी आँख में देखो,
नहीं जलती क्या वहाँ भी जोत-

काँपती हो, टिमटिमाती हो, शरीर छोड़ती हो,
धुएँ में घुट रही हो-
जीत वैसी ही जिसे तुम ने
सदा अपने हृदय में जलती हुई पाया-

किसी महती शक्ति ने अपनी धधकती महज्ज्वाला से छुला कर
जिसे देहों की मशालों में
जलाया!

(6)

रुकूँ मैं भी! क्यों तुम्हें तुम कहूँ?
अपने को अलग मानूँ? साँप दो हैं
हम नहीं। और फिर
मनुजता के पतन की इसी अवस्था में भी

साँप दोनों हैं पतित दोनों
तभी दोनों एक!

(7)

केंचुलें हैं, केंचुले हैं, झाड़ दो!
छल-मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो!
साँप के विष-दाँत तोड़ उखाड़ दो!
आजकल का चलन है-सब जन्तुओं की खाल पहने हैं-
गले गीदड़-लोमड़ी की,

बाघ की है खाल काँधों पर
दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से
हाथ में थैला मगर की खाल का
और पैरों में-जगमगाती साँप की केंचुल

बनी है श्री चरण का सैंडल
किन्तु भीतर कहीं भेड़-बकरी,
बाघ-गीदड़, साँप के बहुरूप के अन्दर
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पता है

सनातन मानव-खरा इनसान-
क्षण भर रुको तो उस को जगा लें!
नहीं है यह धर्म, ये तो पैतरे हैं उन दरिन्दों के
रूढि़ के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ा कर

जो विचारों पर झपट्टा मारते हैं-
बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें!
साथ आओ-गिलगिले ये साँप बैरी हैं हमारे
इन्हें आज पछाड़ दो यह मकर

की तनी झिल्ली फाड़ दो
केंचुले हैं केंचुले हैं झाड़ दो!

इलाहाबाद, 27-29 अक्टूबर, 1947