आत्मा बोली :
सुनो, छोड़ दो यह असमान लड़ाई
लडऩा ही क्या है चरित्र? यश जय ही?
धैर्य पराजय में-यह भी गौरव है!
मैं ने कहा :
पराजय में तो धैर्य सहज है, क्योंकि पराजय परिणति तो है।
मैं तो अभी अधर में हूँ-लड़ता हूँ।
आत्मा बोली :
किस बूते पर? मेरे दो ही सहकर्मी : प्यार-सिखाता है जो देना,
आशा-जो चुक जाने पर भी रिक्त नहीं होने देती है।
अब तो मैं हूँ निपट अकेली!
मैं ने कहा :
सखी मेरी, तुम भले मान लो मुझे अकिंचन
पर क्या मेरी आस्था भी नगण्य है?
दे कर-देते-देते चुक जाने पर
वही प्रेरणा देती है-मैं दे सकने को और नया कुछ रचूँ! फिर रचूँ!
अभी न हारो, अच्छी आत्मा,
मैं हूँ, तुम हो,
और अभी मेरी आस्था है!
कलकत्ता जाते हुए (रेल में), 31 अक्टूबर, 1949