फैला है पठार, सलवट की ओट बिछा है कन्धा :
काली परती, भूरे ऊसर, तोतापरी खेत गेहूँ के,
कितनी हैं थिगलियाँ पुराने इस कन्धे पर!
सिलीं मेंड़ की या पगडंडी की जर्जर डोरी से-
उपयोगी थिगलियाँ।
कहीं पर
किसी मनचले कलाकार की आँकी-बाँकी हरी लीक
कुलिया की।
कन्धे पर यह जमी हुई है चौसर :
इतनी ऊँचे से गोटें तो नहीं दीखतीं
पर घर पहचाने जाते हैं।
इधर रहा यह गोल रहँट का :
काले-चिट्टे चींटे खींच रहे हैं एक सुरमचू,
सुरमेदानी नहीं दीखती : मस्से-सा कुएँ का मुँह है।
उधर बिछे हैं ढेर नाज के-टीले खलिहानों के-
सोने के मन-लोभन पाँसे।
मैं तो हूँ उड़ रहा खिलाड़ी :
जाने-अनजाने माने हूँ जोखम का है खेल हवाई यात्रा।
पर नीचे चौसर के अगल-ब गल जो पाँसे डाले खेल बिछाये
हरदम रहता-
उस अपने आड़ी किसान की जोखम मुझ से बहुत बड़ी है-
मैं जो अपनी एक जान को ही चिपटे हूँ-
वह अपने आगे-पीछे सैकड़ों पीढिय़ाँ दाँव-दाँव पर बद देता है।
ऊँचाई कम चली : शीघ्र ही वायुयान उतरेगा।
बड़े शहर के ढंग और हैं : हम गोटें हैं वहाँ :
दाँव गहरे हैं उस चौपट के।
दिल्ली-बम्बई, 23 मार्च, 1951