ग्रीष्म तो न जाने कब आएगा!
लू के दुर्दम घोड़े पर वह अनलोद्भव अवतार-पुरुष
कब आ कर धरती को तपाएगा
उस ताप से जिस से वह तप:पूत, तप:कृशा
फिर माँग सके, सह सके वह पावस की मिलन-निशा
जिस में नव मेघ-दूत शावक-सा
आ कर अदम्य जीवन के द्रावक सँदेसे से उसे हुलसाएगा-
ग्रीष्म तो न जाने कब आएगा!
तब तक मैं उस का एक अकिंचन अग्रदूत
अपनी अखंड आस्था के साक्ष्य-रूप
मश्शाल जला दूँ-
न सही क्षयग्रस्त नगर में-
इस वनखंडी में आग लगा दूँ।
नागपुर-जबलपुर (मोटर में), 17 मार्च, 1954