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ओ लहर / अज्ञेय

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जिधर से आ रही है लहर
अपना रुख़ उधर को मोड़ दो
तट से बाँधती हैं जो शिराएँ मोह उन का छोड़ दो,
वक्ष सागर का नहीं है राजपथ :
लीक पकड़े चल सकोगे तुम उसे धीमे पदों से रौंदते-
यह दुराशा छोड़ दो!

आह, यह उल्लास, यह आनन्द वह जाने कि जिस से
अनगिनत बाँहें बढ़ा कर ढीठ याचक-सा लिपटता अंग से
माँगता ही माँगता सागर रहा है
और जिस ने जोड़ कर कुछ नहीं रक्खा-
सदा बढ़-चढ़ कर दिया है-
जो सदा उन्मुक्त हाथों, मुक्त मन, देता रहा है,
अन्तहीन अकूल अथाह सागर का थपेड़ा
सदा जिस ने समुद्र छाती पर सहा है
आह! यह उल्लास, यह आनन्द, वह जाने
बहा है
सनसनाता पवन जिस की लटों से छन कर,
थम गयी है तारिका जिस के लिए
व्योमपट पर जड़ी हरि की कनी-सी ज्वलित जय-संकेत-सी बन कर
हर लहर ने शोर कर जिस को
अनागत ज्योति का स्पन्दित सँदेसा भर
कहा है।

जिधर से आ रही है लहर
अपना रुख़ उधर को मोड़ दो :
तरी सागर की सुता है, संगिनी है पवन की,
उसे मिलने दो ललक कर लहर से :
वहीं उस को जय मिलेगी तो मिलेगी
या, मिलेगी लय; असंशय
तुम तरी तो छोड़ दो बढ़ती लहर पर!
डर?
कौन? किसका? हरहराती आ, लहर, मेरी लहर
फेन के अनगिन किरीटों को झुका कर
तू मुखर आह्वान कर मेरा, मुझे वर
जिधर से आ रही है तू!

जिधर से मुझ पर थपेड़े पडेंग़े अविराम
उधर ही तो मुक्त पारावार है।
दुर्द्धर लहर
तू आ!
ओ दुर्दान्त अथाह सागर की लहर,
दूर पर धु्रव, अजाने पर प्रेय
मेरे ध्येय
मेरे लक्ष्य की गम्भीर अर्थवती डगर
ओ लहर!

जिधर से आ रही है लहर
अपना रुख़ उधर को मोड़ दो
तरी अपनी चिर असंशय
लहर ही पर छोड़ दो!

दिल्ली (कनाट प्लेस में खड़े-खड़े), 3 अप्रैल, 1955