जीवन,
देना ऐसा सुख जो सहा न जाय,
इतना दर्द कि कहा न जाय।
ताप कृच्छ्रïतम मेरा हो, अनुभूति तीव्रतम-
मैं अपना मत होऊँ!
मुझ से स्नेह झरे जिस में मैं सब को दे आलोक अमलतर
ऐसा दिया सँजोऊँ!
देना जीवन, सुख, दुख, तड़पन
जो भी देना, इतना भर-भर, एक अहं में वह न समाय-
एक जिंदगी एक मरण का घेरा जिस को बाँध न पाय,
बच रहने की प्यास मिटा दे जो इसलिए अमर कर जाय।
किन्तु साथ ही / देना साहस
हो अन्याय किसी के भी प्रति पर मुझ से चुप रहा न जाय,
आस्था जिस के सुख का प्लावन ज्वार व्यथा का बहा न पाय।
आकांक्षा का मधुर कुहासा, संशय का तम, करे न ओझल
वह पैना विवेक जिस को दुश्चिन्ता कोई करे न बोझल
सच का आग्रह, निष्ठा की हठ,
अग-जग के विरोध का धक्का जिस को ढहा न पाय।
देना, जीवन, देना।
दिल्ली, 22 अप्रैल, 1955