तुम हँसी हो-जो न मेरे ओठ पर दीखे,
मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है।
धूप-मुझ पर जो न छायी हो,
किन्तु जिस की ओर
मेरे रुद्ध जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही हैं।
तुम दया हो जो मुझे विधि ने न दी हो,
किन्तु मुझ को दूसरों से बाँधती है
जो कि मेरी ही तरह इनसान हैं,
आँख जिन से न भी मेरी मिले,
जिन को किन्तु मेरी चेतना पहचानती है।
धैर्य हो तुम : जो नहीं प्रतिबिम्ब मेरे कर्म के धुँधले मुकुर में पा सका,
किन्तु जो संघर्ष-रत मेरे प्रतिम का, मनुज का,
अनकहा पर एक धमनी में बहा सन्देश मुझ तक ला सका,
व्यक्ति की इकली व्यथा के बीज को
जो लोक-मानस की सुविस्तृत भूमि में पनपा सका।
हँसी ओ उच्छल, दया ओ अनिमेष,
धैर्य ओ अच्युत, आप्त, अशेष।
जहाज 'आसिया' में (लालसागर), 6 फरवरी, 1956