अरे ये उपस्थित
घेरते,घूरते, टेरते
लोग-लोग-लोग-लोग
जिन्हें पर विधाता ने
मेरे लिए दिया नहीं
निजी एक अंतरंग चेहरा ।
अनुपस्थित केवल वे
हेरते, अगोरते
लोचन दो
निहित निजीपन जिन में
सब चेहरों का,
ठहरा ।
वातायन
संसृति से मेरे राग-बंध के ।
लोचन दो-
सम्पृक्ति निविड़ की
स्फटिक-विमल वापियाँ
अचंचल :
जल
गहरा-गहरा-गहरा !
शिक्षायतन, कलकत्ता, 29 नवम्बर, 1959