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घर छोड़े / अज्ञेय

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 हाँ, बहुत दिन हो गये
घर छोड़े।
अच्छा था
मन का अवसन्न रहना

भीतर-भीतर जलना
किसी से न कहना
पर अब बहुत ठुकरा लिये
परायी गलियों के

अनजान रोड़े।
यह नहीं कि अब याद आने लगे
चेहरे किन्हीं ऐसे अपनों के,
या कि बुलाने लगे

मेहमान ऐसे कोई सपनों के।
कभी उभर भी आती हैं
कसकें पुरानी,
यह थोड़े ही कि नैन कभी

पसीजे नहीं?
सुख जो छूट गये पर छीजे नहीं
सिहरा भी जाते हैं तन को
जब-तब थोड़े-थोड़े।

सोचता हूँ, कैसा हो
अगर इस सहलाती अजनबी
बसन्त बयार के बदले
वही अपना झुलसाता अन्धड़ फिर

अंग-अंग को मरोड़े;
यह दुलराती फुहार नहीं
वह मौसमी थपेड़ा दुर्निवार
देह को झँझोड़े;

ये नपी-तुली रोज़मर्रा
सहूलतें न भी मिलें,
आये दिन संकट मँडराये,
फिर झिले कि न झिले;

पर भोर हो, सूरज निकले, तो ऐसे
जैसे बंजर-बियाबान की
पपड़ायी मिट्टी को
नया अंकुर फोड़े!

नहीं जानता कब कौन संजोग
ये डगमग पग
फिर इधर मोड़े-या न मोड़े?-
पर हाँ, मानता हूँ कि

जब-तब पहचानता हूँ कि
बहुत दिन हो गये
घर छोड़े।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 17 मार्च, 1969