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अलस / अज्ञेय

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भोर
अगर थोड़ा और अलसाया रहे,
मन पर
छाया रहे

थोड़ी देर और
यह तन्द्रालस चिकना कोहरा;
कली
थोड़ी देर और

डाल पर अटकी रहे,
ओस की बूँद
दूब पर टटकी रहे;
और मेरी चेतना अकेन्द्रित भटकी रहे,

इस सपने में जो मैं ने गढ़ा है
और फिर अधखुली आँखों से
तुम्हारी मुँदी पलकों पर पढ़ा है
तो-तो किसी का क्या जाए?

कुछ नहीं।
चलो, इस बात पर
अब उठा जाए।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 29 मार्च, 1969