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मन दुम्मट-सा / अज्ञेय

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 मन
दुम्मट-सा गिरता है
सूने में अँधेरे में;
न जाने कितनी गहरी है

भीत
मेरी उदासी की
ओ मीत!
गिरता है गिरता है

कहीं नहीं थिरता है धीरज;
नीचे ही सही
राह भी होती
उतरने की, तो

गिरता, डूब जाता
फिर शायद उतराता...
पर नहीं; मन
गिरता है और गिरता ही जाता है,

न थाह पाता है न फिरता है,
बस, सहमता ताकता है
कि मनोगर्त का अँधेरा ही बढ़ कर लोक लेता है।

देखो! कहीं वही तो नहीं,
अब स्वयं मेरे भीतर से झाँकता है?
उफ़, गिरता है, गिरता है
मन...

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), अप्रैल, 1961